शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

लिट्ल रोज़ः प्रेम की परतो का उद्घाटन करती फिल्म

(लि़टिल रोज़, प्रेम के वास्तविक परतो को उधेड़ती है..लिख रहे हैं अजित राय) 


पौलेंड के सुप्रसिद्ध फिल्‍मकार जान किदावा ब्‍लोंस्‍की की नई फिल्‍म ‘लिटल रोज’ एक दिलचस्‍प प्रेमकथा का त्रिकोण है। जिसमें इतिहास की कुछ कटु स्‍मृतियां शामिल हैं। 

इजरायल ने 1968 में जब फिलिस्‍तीन पर हमला किया था तो पौलेंड के कम्‍युनिस्‍ट शासकों ने इस अवसर का इस्‍तेमाल यहूदी और कई दूसरी राष्‍ट्रीयताओं वाले नागरिकों को देशनिकाला देने में किया था। उसी दौरान 1968 के मार्च महीने में पौलेंड की राजधानी वारसा में अभिव्‍यक्ति की आजादी को लेकर लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और विश्‍वविद्यालयों के छात्रों ने एक बड़ा आंदोलन किया था जिसे सरकार ने बेरहमी से कुचल दिया। इसी पृष्‍ठभूमि में कम्‍युनिस्‍ट सुरक्षा सेवा का एक सीक्रेट एजेंट रोमन अपनी प्रेमिका कैमिला को एक सत्‍ता विरोधी लेखक एडम के पीछे लगा देता है। जिस पर शक है कि वह यहूदी है। 

एडम एक प्रतिष्ठित लेखक है और लगातार शासन की तानाशाही के खिलाफ आंदोलन का समर्थन करता है। कैमिला उसकी जासूसी करते हुये अंतत: उसके प्रेम में पड़ जाती है क्‍योंकि उसे लगता है कि एडम का पक्ष मनुष्‍यता का पक्ष है। इसके विपरीत उसका प्रेमी रोमन सिर्फ सरकार की एक नौकरी कर रहा है और सरकारी हिंसा और दमन को सही ठहराने पर तुला हुआ है। 

जब पहली बार कैमिला को इस रहस्‍य का पता चलता है तो उसे सहसा विश्‍वास ही नहीं होता कि सरकारी दमन और हिंसा में शामिल खुफिया पुलिस का एक दुर्दांत अधिकारी किसी स्‍त्री से प्रेम कैसे कर सकता है। वह यह भी पाती है कि प्रोफेसर एडम के ज्ञान और पक्षधरता का आकर्षण उसे एक नये तरह के प्रेम में डुबो देता है। 

अपने पहले प्रे‍मी के साथ उसे हमेशा लगता रहता है कि वह रखैल बनकर केवल इस्‍तेमाल होने की चीज है। उसकी न तो कोई पहचान है और न अस्तित्‍व। वह बिस्‍तर में अपने प्रेमी को सुख देने की वस्‍तु बनकर रह गई है। एडम से मिलने के बाद उसे जिंदगी में पहली बार अपने होने का अहसास होता है। 

‘लिटल रोज’ के लिए जान किदावा ब्‍लोंस्‍की को मास्‍को अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में 32वें मास्‍को अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में सर्वश्रेष्‍ठ निर्देशक का पुरस्‍कार मिल चुका है। यह फिल्‍म एक प्रेम कथा के माध्‍यम से 1968 के पोलैंड की नस्‍लवादी राजनीति का वृतांत प्रस्‍तुत करती है। 

फिल्‍म के अंत में पर्दे पर वारसा रेलवे स्‍टेशन से आस्ट्रिया की राजधानी विएना जाने वाली एक ट्रेन छूट रही है। जिसमें देशनिकाला पाये हजारों लोग भेजे जा रहे हैं। पर्दे पर हम पढ़ते हैं कि कितनी संख्‍या में किस तरह के लोगों को पोलैंड से जबर्दस्‍ती निकाल बाहर किया गया था। कम्‍युनिस्‍ट सरकार को लगता था कि इन लोगों के रहते हुए पोलैंड में समाजवाद सुरक्षित नहीं रह सकता।

फिल्मोत्सव के आखिरी दिन लिट्ल रोज की नायिका मैग्लीना को सर्वश्रेष्ठ नायिका का पुरस्कार भी दिया गया। फिल्म की महत्ता पर यह एक मुहर की तरह है।

फिल्मः लिट्ल रोज़ (2010) Rózyczka (original title)
भाषाः पोलिश 118 min - Drama | History | Romance 

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

हिंदी सिनेमा में महिलाएं- बंदिनी और रुदाली

मंजीत ठाकुर

"ये एक मज़लूम लड़की है जो इत्तेफ़ाक़न मेरी पनाह में आ गई है" फिल्म पाकीज़ा में यह डायलॉग बोलते वक्त राजकुमार को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं रहा होगा कि वह भारतीय सिनेमा के एक सच का खुलासा कर रहे हैं। भारतीय फ़िल्मों की नायिका दशकों से मज़लूमहोने का बोझ ढोती आ रही हैं और ये सिलसिला कुछ अर्थों में आज भी क़ायम है।


हिंदुस्तानी सिनेमा के शुरुआती दौर में नायिकाओं के किरदार भी पुरुष ही निभाया करते थे और  सोलंके नामक एक अभिनेता को नारी की भूमिका निभाने के लिए पुरस्कार भी मिला था। गौर से देखे तों आज तक फिल्मों में नारी पात्रों को पुरुषवादी नज़रिए और अहं के साथ ही गढ़ा गया है। 


नूतन ने दिखाए अदाकारी के जलवे, परदे पर अलग किस्म की महिला थी बंदिनी

हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक की फ़िल्में धार्मिक किस्म की थीं और उनमें महिलाएँ देवियों जैसी थीं, जबकि कैकेयी और मंथरा वगैरह बुरी महिला पात्रों के स्टीरियोटाइप बने। गाँधी जी के असर में भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ही बदलने लगे। 1937 में वी शांताराम  की दुनिया ना मानेमें बूढे़ विधुर से ब्याही नवयुवती इस बेमेल विवाह को नाजायज़ मानती है।

लेकिन 'दुनिया न मानें' की शांता आप्टे को छोड़ दें तो शोभना समर्थ से लेकर तदबीरकी नरगिस या तानसेनकी खुर्शीद तक सभी नायिकाएँ वैसी ही गढ़ी गईं, जैसा हमारा समाज आज तक चाहता आया है।

महबूब ख़ान ने 1939 में औरत और 1956 में इसका भव्य रंगीन संस्करण मदर इंडिया बनाई।  केंद्रीय पात्र अपने सबसे लाडले विद्रोही पुत्र को गोली मार देती है क्योंकि वह गाँव की लाज को विवाह मंडप से उठाकर भाग रहा था। नरगिस द्वारा अभिनीत इस किरदार को ही दीवार में निरूपा राय के रुप में एक और शेड मिलता है।  बाद में मां के चरित्र का सशक्त विस्तार राम लखन, करण अर्जुन और रंग दे बसंती में दिखता है। 
रुदाली परदे पर स्त्री विमर्श को नई ऊंचाई देती है




आज़ादी के बाद के आदर्श प्रेरित कुछ फ़िल्मों में नारी मन को भी उकेरने की कोशिश की गई। अमिया चक्रवर्ती की सीमाऔर बिमल रॉय की बंदिनीमें महिला पात्रों ने कमाल किया। बिमल रॉय की सुजाता हरिजन लड़की के सपने और डर को तो ऋषिकेश मुखर्जी की 'अनुपमा' और 'अनुराधा' भी नारी की पारंपरिक छवि को जीती है। 

लेकिन फ़िल्म जंगलीके साथ रंगीन होते ही हिंदुस्तानी सिनेमा की पलायनवादी धारा ने नारी को वस्तु की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। सातवें दशक में श्याम बेनेगल ने अंकुरऔरनिशांतमें महिलाओं के खिलाफ सामंतवादी अन्याय की कहानी पेश की, और ये भी स्थापित किया कि भारतीय लोकतंत्र सामंतवाद का नया चेहरा है। लेकिन इस दौर की मुख्यधारा के सिनेमा में महिला किरदारों का काम महज नाच-गाने तक ही सीमित रहा। 
प्रतिघात में महिला के प्रतिरोध की कथा है, नए रंग के साथ

नरगिस, कामिनी कौशल, मधुबाला और गीताबाली के साथ मीना कुमारी और नलिनी जयवंत भी अपने अभिनय से दर्शकों पर छाप छोड़ चुकी थीं, फिर भी 'अंदाज़' दिलीप कुमार की ही फ़िल्म मानी जाती रही, 'बरसात' राजकपूर की और 'महल' अशोक कुमार की।
हालांकि राज कपूर की सत्यम् शिवम् सुंदरम्में अंग प्रदर्शन चरम पर था तो बाद में प्रेम रोग विधवा समस्या पर सार्थक फ़िल्म थी। राजकपूर को यह श्रेय ज़रूर देना चाहिए कि उनकी नायिकाएँ किसी भी अर्थ में हीरो से कमतर नहीं रहीं।  वे औरत के उसी रूप में पेश करते रहे जिस रूप में वह हमारे समाज की देहरी के अंदर और बाहर रही हैं।

अमिताभ बच्चन के दौर में मारधाड़ में नायिका कहीं हाशिए पर फिसल गई। अभिमानया 'मिली'  जैसी फिल्में जया भादुड़ी पर मेहरबान ज़रूर हुईं, पर इसी बीच परवीन बॉबी और जीनत अमान जैसी अभिनेत्रियों को केवल अपने जिस्म का जलवा दिखाकर ही संतुष्ट होना पड़ा।

सत्तर के दशक में भी नायिकाएं त्यागमयी, स्नेही, और नायक की राह में आँचल बिछाए बैठी एक आदर्श नारी बनी रही। इसके साथ ही ख़ूबसूरत होना और पार्क में साइकिल चलाते हुए गाना भी उसकी मजबूरी रहा है।




अस्सी का दशक हिंदी फिल्मों में कई लिहाज से अराजकता का दशक माना जाता है। इस दशक में कथा' और चश्मेबद्दूर  या 'गोलमाल' जैसी अलग महिला किरदारों वाली फ़िल्में तो आती हैं, पर ये परंपरा कायम नहीं रह पाती।

महेश भट्ट की अर्थ ने हालांकि महिला किरदारों की परंपरा को नए अर्थ दिए। फिल्म से हमें साधारण चेहरे-मोहरे लेकिन असाधारण प्रतिभा वाली अभिनेत्री शबाना आज़मी मिली। भट्ट की इस फ़िल्म ने एक मशहूर अभिनेत्री का मर्द पर हद से ज़्यादा आश्रय और बरसों से परित्यक्ता पत्नी के आत्मसम्मान को  दिखाया। 
अर्थ ने दिए महिला किरदारों की परंपरा को नए अर्थ

सुबह और भूमिकाभी इसी दशक में आईं और स्मिता पाटिल अपनी चमत्कारिक अभिनय क्षमता का लोहा मनवा गईं। अपनी मादक छवि से परेशानहाल डिंपल ने जख्मी औरत रुदाली और लेकिनसे महिला किरदारों के अलग आयाम प्रस्तुत किए।

सावन भादोसे एक अनगढ़ लड़की के रुप में आई रेखा ने उमराव जान और खूबसूरत जैसी फिल्मों से  अपना अलग मुकाम बनाया लेकिन उनके किरदार में वैविध्य खून भरी मांग से ही आया।
काजोल दुश्मनऔर बाज़ीगरमें कुछ अलग क़िस्म की भूमिकाओं में दिखीं लेकिन यहां भी उन किरदारों को हीरो का सहारा चाहिए था। रानी के 'ब्लैक' में कमाल के पीछे कहीं अमिताभ बच्चन का चेहरा झाँकता रहा। बहरहाल, रवीना टंडन की सत्ताया गुलजार की 'हू तू तू' बेशक महिलाओं पर बनी अच्छी राजनीतिक कहानियां हैं। ऐसी ही कुछ प्रकाश झा की राजनीति भी है, जिसमें पहली बार कतरीना कैफ सिर्फ पलकें झपकाने की बजाय अभिनय करती नजर आई हैं।




बाजार की शक्तियों ने नायिकाओं को अभिनेत्री के आसन से उतार कर आइटम बना दिया। मल्लिका शेरावतों और मलाइका अरोड़ाओं के सामने तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त बेहद सीधे-साधे गीत नजर आते हैं। 

हाल की इश्क़िया में विद्या बालन का किरदार अलग है। मिस्टर एंड मिसेज अय्यर और पेज थ्री की कोंकणा हालांकि शबाना और स्मिता की याद दिलाती हैं, लेकिन आज भी भारतीय दर्शक अपनी हीरोइन से यही कहना चाहता है, "आपके पाँव देखे, बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें ज़मीन पर न रखिएगा मैले हो जाएँगे..."

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

पुरुष देह में स्त्री मनः जस्ट अनदर लव स्टोरी

बांगला के बहुचर्चित फिल्‍मकार ऋतुपर्णो घोष ने जस्ट अनदर लव स्टोरी फिल्‍म से अभिनय में शानदार शुरूआत की है। ऊपर से देखने पर यह फिल्‍म समलैंगिकता के विषय को कई कोणों से उठाती है। लेकिन हकीकत यह है कि यह फिल्‍म इससे आगे जाकर प्रेम, विवाह, सैक्‍स, कला और घरेलू जीवन के कई पक्षों के साथ-साथ मनुष्‍य मात्र की आजादी और सीमाओं के बारे में बात करती है। 

आखिर उस व्‍यक्ति का क्‍या किया जाये जिसका सब कुछ – मन, आत्‍मा, स्‍वभाव और संस्‍कार – स्‍त्री का है और शरीर पुरुष का। हमारा समाज आज भी इस जटिल स्थिति का सामना विवेकपूर्ण ढंग से नहीं कर पा रहा है। ऐसे व्‍यक्तियों को या तो अपमान मिलता है या पुरुष वेश्‍या की गाली।


‘जस्‍ट एनादर लव स्‍टोरी’ बांगला रंगमंच के पहले समलैंगिक कलाकार चपल भादुड़ी के अतीत और वर्तमान की मार्मिक गाथा है जो अब 70 साल के हो चुके हैं। उन्‍हें कोलकाता में लगभग भुला दिया गया है और उनके जीने का सहारा केवल उनकी यादें हैं। 
अपने जमाने में वे स्‍त्री पात्रों की भूमिका निभाने वाले अकेले सबसे बड़े कलाकार थे। मंच पर उनका स्‍त्री का अभिनय जादू पैदा करने वाला था। आज का एक सफल फिल्‍मकार अभिरूप सेन उनके जीवन पर एक वृत्‍तचित्रनुमा फीचर फिल्‍म बनाना चाहता है। 
अभिरूप सेन घोषित रूप से खुद एक समलैंगिक व्‍यक्ति है। चूंकि वह बहुत अमीर और प्रभावशाली है इसलिए उसको वह सब कुछ नहीं झेलना पड़ता है जिसे चपल भादुड़ी ने झेला था। फिल्‍म में चपल भादुड़ी ने खुद अभिनय किया है और उनके अतीत का चरित्र ऋतुपर्णो घोष ने निभाया है।  
ऋतुपर्णो घोष ने इस चरित्र के साथ-साथ समलैंगिक फिल्‍मकार का चरित्र भी निभाया है। वे दोहरी भूमिका में हैं और उनकी दोनों भूमिकाएं अतीत और वर्तमान के बीच एक पुल का काम करती हैं।

इस फिल्‍म में ऋतुपर्णो घोष ने दोनों भूमिकाओं में विलक्षण काम किया है। एक निर्देशक के रूप में अपनी कई फिल्‍मों – उनीशै एप्रिल, चोखेरबाली, दोसोर आदि – से विशिष्‍ट पहचान बनाने वाले ऋतुपर्णो घोष की स्‍पष्‍ट छाप इस फिल्‍म पर दिखाई देती है। 
फिल्‍म का एक-एक फ्रेम एक-एक एक्‍शन, एक-एक संवाद और एक-एक कट ऋतुपर्णो घोष का लगता है। चपल भादुड़ी और ऋतुपर्णो घोष के चरित्रों की टकराहट उनके बीच एक अद्भुत बहनापा पैदा करती हैं, जो उनकी अमीरी और छद्म आजादी के कवच को तोड़ती हुई उन्‍हें उनकी नियति तक ले जाती है। उनकी नियति है समाज में हाशिये की जिंदगी जीना और जीवन भर भावनात्‍मक संघर्ष झेलना। 
चपल भादुड़ी अपने जमाने में अपना अधिकतर समय अपने पुरुष प्रेमी की पत्‍नी के साथ सह-अस्तित्‍व की खोज में गंवा देता है, तो अभिरूप सेन को आज के उत्‍तर आधुनिक समाज में भी वही सब दोहराना पड़ता है।
फिल्‍म के अंतिम दृश्‍यों में अभिरूप सेन (ऋतुपर्णो घोष) के पुरुष प्रेमी की पत्‍नी गर्भवती है और वह अपने हक के लिए उनसे एक आत्‍मीय बातचीत करती है। एक मार्मिक संवाद है जिसमें अभिरूप पूछता है कि यदि वह शरीर से औरत होता तो भी क्‍या उसे यही प्रतिक्रिया झेलनी पड़ती।  जाहिर है तब इस प्रेम त्रिकोण का एक दूसरा ही रूप होता। 
फिल्‍म बिना कोई फुटेज बर्बाद किये इस प्रेम त्रिकोण के एक-एक सामाजिक और भावनात्‍मक पक्षों पर दार्शनिक अंदाज में विचार करती है। ऋतुपर्णो घोष की यह फिल्‍म अपने अनोखे विषय के कारण नहीं, अपनी सिनेमाई कलात्‍मकता और समझ के कारण महत्‍वपूर्ण है।


आश्‍चर्य है कि बंगाल के इस जीनियस फिल्‍मकार की नई फिल्‍म ‘नौकाडूबी’ को इस फिल्‍मोत्‍सव में बहुत अच्‍छी प्रतिक्रिया नहीं मिली है। सुभाष घई की कंपनी मुक्‍ता आर्ट्स ने इसे प्रोड्यूस किया है। बांगला फिल्‍मों के सुपर स्‍टार माने जा रहे प्रसेनजीत चटर्जी और राइमा सेन जैसे कलाकारों ने इसमें मुख्‍य भूमिका निभाई है। 



यह फिल्‍म रवीन्‍द्रनाथ टैगोर की एक प्रेम कहानी पर आधारित है। जो 1920 के बंगाल में घटित होती है। उसी दौरान इस पर एक मूक फिल्‍म भी बनी थी। बाद में सुनील दत्‍त और तनूजा अभिनीत ‘मिलन’ फिल्‍म में इसी कहानी को दोहराया गया था।


--अजीत राय


सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

अजीब 'मौसम' है ये, बहका-बहका सा

मौसम किसी का भी मूड बिगाड़ने की काबिलियत खुद में समेटे है। कॉमेडी , ट्रेजेडी, रोमांस का ये दमघोंटू कॉकटेल पंजाब के मल्लूकोट, कश्मीर , अहमदाबाद, स्कॉटलैंड और स्विटजरलैंड के बीच दर्शकों को चकरघिन्नी के माफिक नचाती है।

पंकज कपूर की इस चिरप्रतिक्षित फिल्म से लोगों को किसी भी मौसम और मूड में निराशा ही हाथ लगेगी, अभिनय के महारथी पंकज कपूर फिल्म निर्देशन के अखाड़े में पस्त हो गए। पंजाब और कश्मीर से शुरु हुआ फिल्म का सफर अहमदाबाद जाकर ही खत्म हुआ ।


शाहिद और सोनम के गंगा-जमुनी प्यार की गाड़ी जब भी रफ्तार पकड़ती , जहरीला जमाना अयोध्या , बंबई, कारगिल , 9/11 की शक्ल में प्यार के इन पंछियों को मानो साजिशन विपरीत दिशा में उड़ने को मजबूर कर देता... खैर मासूम रज्जो के अनवरत प्रेम ने भी कुछ कम नुकसान नही पहुंचाया ।

अन्त तक आते आते दर्शकों का दिल घबड़ाने लगा कि शाहिद-सोनम के अटूट प्यार को दिल्ली हाइकोर्ट की नजर न लग जाए... पंकज कपूर को धन्यवाद कि आशंका आशंका ही रही और शाहिद-सोनम के प्यार को दिल्ली की नजर नही लगी।

 हकीकत फिल्म के एक मशहूर गाने की लाइन है- कहीं ये वो तो नही , लेकिन दर्शकों के सामने दूर-दूर तक ऐसा कोई कंफ्यूजन नही। दर्शक पंकज कपूर से काफी कुछ ज्यादा की उम्मीद लगाए थे, और खासकर तब जबकि मुख्य किरदार के चोले में खुद उनके सुपुत्र हों ।


पोस्ट स्क्रिप्ट-- कुछ घोर टाइप के दर्शक गौरी, गजनबी, मुगल और सन सैंतालीस की कमी महसूस करते दिखे और सुनाई भी दिए।
 
 


( इस समीक्षा के लेखक रजनीश प्रकाश हैं। फिल्मों के शौकीन और प्रायः हर फिल्म देख लेने वाले रजनीश मौसम देखने के बाद से बहके-बहके और परेशान से घूम रहे हैं। कहते हैं पंकज कपूर ने उन्हें ठग लिया)