--मंजीत ठाकुर
भारतीय
सिनेमा खासकर हिंदी सिनेमा में विचारधारा की बात थोड़ी अटपटी लग सकती है,
क्योंकि ज्यादातर हिंदुस्तानी फ़िल्में मसाले की एय्यारी और मनोरंजन का तिलस्मी मिश्रण होती हैं। लेकिन
यह भी सच है कि मनोरंजन के तमाम सीढियों पर जाने और कला-शिल्प की
आरोह-अवरोहों के बावजूद सिनेमा ने पिछले आठ दशकों में सामाजिक मकसद को भी
एक हद तक पूरा किया है।
फूहड़ से फूहड़ फिल्म में भी कोई एक दृश्य मिसाल
की तरह बन जाता है और बेहद व्यावसायिक मसाला फिल्म में भी लेखक अपनी
विचारधारा उसी तरह पेश कर देता है, जैसे समोसे के भीतर आलू।
बहुत
गंभीर फिल्में, जिनके निर्देशक कला पक्ष को लेकर बहुत सतर्क रहते हैं-
वहां विचारधारा निर्देशक पर आधारित और सोच समझ कर फिल्म में डली होती हैं।
1930 में, जब आजादी का आंदोलन जोर पकड़ चुका था व्रत नाम की एक
फिल्म का मुख्य पात्र महात्मा गांधी जैसा दिखता था और लोगों से
सच्चरित्रता की बातें करता था और इसी वजह से ब्रितानी सरकार ने इस फिल्म
को बैन कर दिया।
1936 में देविका रानी और अशोक कुमार की अछूत कन्या में दलित समस्या जो बाद में सुजाता में भी उभरकर सामने आई और बाद में 1937 में वी शांताराम ने दुनिया न माने में बाल-विवाह के खिलाफ आवाज बुलंद की।
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो दादा साहब फाल्के की मूक फ़िल्मों से लेकर नए दौर के सिनेमा और समांतर सिनेमा के युगों से होते हुए श्याम बेनेगल की ताजातरीन वेलकम टू सज्जनपुर
तक जो विचारधारा हिंदुस्तानी फिल्मों में दिखती है वह उदारवादी मार्क्सवाद
है। इसमें-बजाय व्यवस्था और सत्तातंत्र के खिलाफ हिंसक क्रांति के-सामाजिक
न्याय और उदारवादी विरोध है। यह करीब-करीब गांधीवादी आदर्शवाद ही है।
हिंदुस्तान
में कट्टर और क्रांतिकारी वामपंथी विचारधारा अगर फिल्मों में विकसित नहीं
हो पाई तो इसकी वजह हिंदुस्तानी जनता ही है, जो अध्यात्म और भाग्य पर
ज्यादा भरोसा करती है। यहां विभाजन वर्ण का है, वर्ग का नहीं; इसलिए यहां जाति, वर्ग से ज्यादा अहम है। इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर भारतीय सिनेमा में जो विचारधारा दिखती है वह सामाजिक न्याय की हिमायत करने वाली विचारधारा है।
इतालवी नव-यथार्थवादी विचारधारा के असर से भारत में एक फिल्म बनी- दो बीघा ज़मीन। इस फिल्म पर विक्तोरियो डि सिका की लीद्री दि वीसिक्लित्ते
(वायसिकिल थीव्स) का असर साफ देखा जा सकता है। ग्रामीण अत्याचारी
ज़मींदारी व्यवस्था और शहरी नव-सामंतवाद के खिलाफ इस फिल्म को एक
दस्तावेज़ माना जा सकता है।
सत्तर
के दशक की शुरुआत में एक ओर तो अमिताभ का अभ्युदय हुआ दूसरी ओर समांतर
सिनेमा का। बहुधा लोग अमिताभ के गुस्सैल नौजवान को एक सामाजिक चेतना के
तौर पर स्वीकार करते हैं। जंजीर का गुस्सेवर पुलिस इंस्पैक्टर हो या दीवार का नाराज़ गोदी मज़दूर, या फिर त्रिशूल
का बदला भंजाने पर उतारु नौजवान..। हालांकि यह जनता की नाराजगी के रुप में
स्वीकृत हुआ है, लेकिन है यह निजी गुस्सा ही। तीनों ही फिल्मों का नायक
अपने परिवार का बदला ले रहा होता है, यह बात दीगर है कि किरदार के निजी
अनुभव आम जनता से मेल खा गए। बनिस्बत इसके, अर्धसत्य के ओम पुरी के किरदार का गुस्सा अमिताभ के किरदारों से गुस्से से कहीं ज्यादा वैचारिक और सामाजिक चिंता से उपजा है।
दूसरी ओर उसी दौर के समांतर सिनेमा में वामपंथी विचारधारा अधिक मुखर हुईं। अंकुर, पार, निशांत अंकुश और आक्रोश जैसी फिल्में इसी वैचारिक संघर्ष को पेश करती हैं।
कई बार मुख्यधारा की फिल्मों में भी कई लेखकों ने कई ऐसे किरदार रच दिए जो पूरी विचारधारा तो पेश नहीं करते लेकिन आप तक अपनी बात पहुंचा कर ही दम लेते हैं। फिल्म बंडलबाज़ में जिन्न बने शम्मी कपूर आम इंसान की तरह पहाड़ चढ़ते वक्त राजेश खन्ना से कहते हैं कि आम आदमी होना कितना मुश्किल है।
अमिताभ बच्चन की प्रतिभा का फिल्मकारों ने विशुद्ध व्यावसायिक दोहन किया। लेकिन याद कीजिए फिल्म कुली का
वह दृश्य जिसमें सुरेश ओबेरॉय और अमिताभ के बीच स्विमिंग पूल के पास
मारपीट होती है। ओबेरॉय हथौड़ा उठा लेते हैं और अमिताभ के हाथ लग जाता है
हंसिया। फिर हंसिया और हथौड़े का एक्सट्रीम क्लोज शॉट...निर्देशक ने अपना
काम पूरा कर दिया, लेखक ने अपना। विचारधारा को बगैर फतवे के पेश कर दिए
जाने का नायाब नमूना है यह।
कभी
अमिताभ के लिए कठिन प्रतिद्वंद्वी बन चुके मिथुन फूहड़ फिल्में बनाने में
उनके भी उस्ताद निकले। लेकिन ज़रा ध्यान दीजिए, मिथुन ने ज्यादातर फिल्मों
में गरीब आदमी के किरदार निभाए हैंऔर उनकी प्रेमिका और खलनायक हमेशा
धनी-पूंजीपति होते हैं। वर्ग संघर्ष दिखाने का यह तरीका आम आदमी को बहुत
भाया। मिथुन की इसकी परंपरा को बाद में गोविंदा ने चलाया, लेकिन बाद में
वह दादा कोंडके की राह पर चले गए।
एक दशक होने को आए, लगान ने भी क्रिकेट के बहाने निहत्थे आम आदमी के जीवन-संग्राम में महज साहस
के बल पर कूद जाने की कहानी कही। नागेश कुकूनूर की इकबाल भी इसी आम आदमी
के और भी छोटे स्वरूप को पेश किया। हाल में लगे रहो मुन्ना भाई और रंग दे
बसंती ये दो फिल्में ऐसी ज़रुर आईं, जिनमें विचार हैं। प्रायः माफिया का
किरदार निभाने वाले संजय दत्त लगे रहो..में गांधीगिरी करते नज़र
आए। इस फिल्म ने उस दौर में जनता को अहिंसक विरोध के नए स्वर दिए, जब
बदलती दुनिया में युवा पीढी गांधी को तकरीबन आप्रासंगिक मानने लगी थी।
दूसरी ओर इसी युवा पीढी को विरोध का एक और विकल्प दिया, रंग दे बसंती ने।
हालांकि, रंग दे.. में विरोध हिंसक है..लेकिन फिल्म सोचने पर मजबूर करती है। इसमे एक विचारधारा तो है।